: श्लोक :
आदी श्रीपुरुषोत्तम पुरहरं श्रीनारदाख्यं मुनिं
कृष्ण व्यासगुरूं शुकं तदनु विष्णुस्वामिन॑ द्राविडम् ।
तच्छिष्य॑ किल बिल्वमङ्गलमहं वन्दे महायोगिनं
श्रीमद्वल्लभनाम धाम च भजेऽस्मत्सम्प्रदायाधिपम् ।।
प्राकट्य : रसस्वरूप अनादि अजन्मा शुद्ध भूतलपे सारस्वत कल्प
चरित्र: निरोधलीला (१० स्कन्ध)के तामस फलप्रकरणके चौथे अध्यायकी महारासलीलामें
यह स्वरूप प्रकट है। दूसरी गुप्त है। “साक्षात्मन्मथमन्मथ” स्वरूप है। कमल जैसे मुख
वाले प्रभुने व्रजांगनाओको महारासलीला का सुख दिया। स्वभक्तोके हृदय में
दोषरूप मद-मानको स्वमुखके आभुषण बनाए। कामदेव स्वरूपमात्रसे परास्त हो गया।
इनका वर्णन श्रीविठ्ठलनाथजी “श्रीललितत्रिभंगस्तोत्रम”में है। आपका स्वरुप रसपात्रोको
रसदानका सूचक है। भरा हुआ पात्र झुकता है। तभी तो रसपान संभव है। यह रसपान
रासके आगे ब्रह्मानन्द या विषयानन्द अणुसमान तुच्छ है। इसलिए “वेणु” धारण की। वेणु
शब्द यानी व+इ+अणु – व – ब्रह्मानन्द; इ + विषयानन्द; अणु यानी तुच्छ छह: रन्ध्र
छह: धर्म का निरुपण और उसे दान करने वाले वाहक धर्मी। रासोत्सवका संकेत है।
ब्रह्मसंबंध आज्ञा यही स्वरुप ने की है। क्योंकि, ब्रह्मसंबंधका फल रास है। जैसे व्रजांगनाओ
के, व्रजस्त्रीयों के दान किया। “श्रीमधुराष्टरक”में श्रीवल्लभाचार्यजीने इन्हीके स्वरूप का
वर्णन किया है। यह ब्रह्मसंबन्ध वक्त, और ब्रम्हाण्ड घाट पर प्रगट हुए।
श्रीगोवर्धननाथजीका स्वरुप यानी सारस्वत्कल्पमें श्रीकृष्ण जब अन्नकूट महायाग व्रजभकतो द्वारा किया गया, तब श्रीकृष्ण स्वयं श्रीगोवर्धनपर्वतके भीतर पधारकर, उनका धर्मी रस स्वरुप गूढ़ रखकर, चतुर्व्यूह स्वरुप प्रकट कर, अन्नकूट की सामग्री अंगीकार की। बहार जो एक उर्ध्वभुजा कर कटी पर दूसरा श्रीहस्त रखकरजो व्रजभक्तोको बुलानेवाले भी वही है। जो गुप्त रस स्वरुप होकर पर्वतमें है वह रसात्मक युगल लीलाके अधिकारीके लिए उनका स्वरुप प्रकट है। अन्य जीवोके लिए वह देवता धर्म स्वरुप है। जो जगत उद्धारक है।
श्रीगिरिराज श्रीवल्लभका हृदय है। जिसमे कुञ्ञकी लीलाको श्रीवल्लभने श्रीकृष्ण और स्वामिनीजीके हृदयमें स्त्रीभाव पुभाव रूप बिराजकर उद्बोध करते है। जिस जीवको वललभकी भक्ति हो, सेवक हो, उनका अंग हो, उसे हि इस लीलामें प्रवेश दान होता है। इसलिये जब श्रीवल्लभ भूतल पर प्रकट हुए तो प्रभु स्वामिनीजी का हृदय मानो निकुंज से भूतल पर खुदसे अलग हो गया। इसलिये भूतल पर श्रीजी, यमुनाजी, व्रजसृष्टि और गोवर्धनलीला श्रीवल्लभके लिए प्रकट हुए। और श्रीवल्लभका प्राकट्य दैवी निज सृष्टिके लिये। उनके लिए श्रीजी नहीं वल्लभ (दाता) जब (भक्त जीव)वल्लभकी भक्तिवाले जीवको दान (श्रीगोवर्धननाथजी) करे तो मिले। ८४वार्ता देखे। गूढ़ भाव जाने।
प्राकट्य: द्वापर का अंत, “गुरु पूनम” आषाढ़ पूनम
चरित्र: यहाँ श्रीवेदव्यासजी पराशरजी और श्रीमत्स्यगन्धाके पुत्र है। यह “व्यास” शब्द
हर युगमें युग और कल्पके हिसाबसे वेदके सत्यार्थको प्रगट कर उपदेश-आचरण करने
वाले वेदधर्मक पदका “आचार्य” पद है। उस पद पर द्वापरके अंतमें कलिके प्रारम् पहले
पुर्णज्ञानके पूर्ण अवताररूप श्रीकृष्ण अवतरीत होकर, कलियुगमें होने वाले वेद-धर्म –
स्मृति – पुराणका हनन दूर करके वेदकी नित्यता, पुराणोंके माध्यमसे सर्ववर्ण लिंगका
उद्धार, साररूप “ब्रह्म” तत्व प्रगट करेगे। आचरण जिसके पालनसे कलियुगमेंभी
मुक्ति या भक्ति मिले, वैसा मार्ग धर्म-वेद-पुराण-सूत्र-षटशास्त्र- उपनिषदका दर्शन
करने वाले “वेदान्त” दर्शनका वहन करेगे। आचार्यगण वेदान्त दर्शनकी सम्प्रदायरूप
परंपरामें आते है। जो श्रीवेदव्यासजीके ग्रंथोका अविरोधरूप अर्थ नहीं करता, वह सच्चा
हिन्दू वेदधर्म नहीं बता सकता। उसमे उद्धार नहीं है इसलिए, श्रीवल्लभाचार्यजी
“व्यासो5स्माकं गुरु:” श्रीवेदव्यास हम सबके गुरु है। “ऐसा हिन्दू धर्म वालोको आज्ञा
करते है। ” सभी पुराने आचार्य इसी तरह व्यासके ग्रंथोके आधार पर ही अर्थ करने वाले है।
जो सच्चा हिन्दू धर्म हैं।
प्राकट्य : द्वापर युगका अंत, श्रीवेदव्यासजीके पुत्र पुराणानुसार कमसे कम ५००० वर्ष पूर्व
चरित्र: जब वह गर्भमें पधारे, तब उनकी माता नित्य श्रीवेदव्यासजीके सन्मुख
श्रीमदभागवतका तत्त्व सुनते। परिणाम स्वरुपश्री वेदव्यासजीसे श्रीमदभागवत १६ वर्ष तक सुनी।उन्हें गर्भ में ही श्रीकृष्णकी समस्तरसमय लीला-पान होने लगी। जब १६ वर्ष बाद प्रकट हुए, तो विरहसे दौड़ने लगे जैसे कोई पक्षी बच्चा अपनी माँ ढूढ़ रहा हो। इन्हें ऐसी अवस्थामें देखकर तलाबमें कन्याओको शर्म नहीं आई, यह श्रीशुकदेवजीकी द्रष्टि निष्काम निर्गुणभक्ति है यह सिद्ध हुआ। पीछे जब व्यासजी आए तो शर्मा गई। तब आगे जब शुकदेवजीकिविरहसे ध्यानमें सब लीलाका स्मरण करने लगे और नेत्र खोले तब जगतके कणकणमें लीला द्रष्ट होते ही हर्षाश्रु बहे। ऐसे श्रीशुकदेव हंसकी भाँति निर्गुण जैसे दूध- पानीको अलग करे मिले होनेके बावजूद उसी तरह निर्गण कृष्णभक्ति आचार्यके मुखसे श्रवण करने से जगत और उसमे बिराजमान रसस्वरूपकृष्णका पान किया। मिले होनेके बावजूद ऐसी रसपानकी योग्यता मिली है।आचार्य परंपराके वाहक है श्रीशुकदेवजी। भागवत्सप्ताह-कथाकार-पुराणीकी परंपरा नही है। सप्ताह-कथा करना श्रीसूतजीकी परंपरा है। यानी पुराणी की।
प्राकट्य: कलियुगकाप्रारम्भ गुर्जर: श्रावणवद ७
चरित्र:कलियुगकाकालयवाकरहैं।इसलिएजिसतरहयवकेशरु आत और अतमेंसत्वनहींहोताकेवल मध्यमेंही होता है उसी तरह कलियुग के प्रारम्भमें अधर्म बढा वेद पुराण धर्मों का, मंदिरों का नाशहुआ। देश-काल-कर्मा मंत्र-करता- संस्कार दूषित होने से श्रीकृष्ण न सभी जीवो का मुक्ति या भक्ति द्वारा उद्धारका श्रीवेदव्यासस्वरुपप्रकटहोकरऔरस्वयंप्रकटहीकरवेदका ब्रह्मसूत्रगीताभगवतकोप्रकट किया। क्योकि कली में सत्वकासमय आयतोपुनःदैवीजीवो का उद्धारहोसके |ऐसासमयकलियुगके प्रथम २५००वर्षबाद शुरू होगा जिसमे श्रीकृष्ण साक्षात प्रकट होकरदैवीजीवो का उद्धारकरे। उनकी लीलानिर्गुणस्रेह भाक्ति की होगी परंतुराजसतामससात्विक भक्तो का उद्धार हठुस्वद श्रीकृष्णतामस अंशावतारविभूतिसेविष्णुस्वामी रूप पुनः वेदादिधर्मउपनिषदसूत्रके तात्पर्य और भागवतधर्मप्रकट किया। समयआयतबश्रीवल्लभावार्यस्वरुप श्रीकृष्णसाक्षातप्रकट होकर उनकीइच्छानुसारवरण करे।४ वैष्णव सम्प्रदायमें एक रूद्रसंप्रदायके अंतर्गत श्रीविष्णुस्वामी है जो बादमें भगवतआज्ञा से श्रीवल्लभाचार्यको समर्पित करे ऐसी आज्ञा दी। अन्य ३ वैष्णव सम्प्रदयो में रामानुज-माध्व-निम्बार्क है दूसरेसारेवैष्णवपंथ उपसम्प्रदायहै, कुछतो असतसम्प्रदायभीहै जोअमान्य है|
प्राकट्य: आठवीसदी
चरित्र: श्रीविष्णुस्वामीपरंपरामे आग आचार्यबिल्वमड़लहै। जिनको श्रीकृष्णने साक्षात प्रकटहोकर विष्णुस्वामीकी परंपरा जब वह निर्गुण अवतारस्वरुपश्रीवल्लभस्वरुप अवतरीत हो, तबस्वयंको सौंप देनेकी आज्ञाकी। जोओरछाविजयबादश्रीबिल्वमद्ने लनेपरंपराश्रीवल्लभाचार्यकोसमर्पितकी।
प्राकट्य : व्रज: वैशाख वद-११ गुर्जर: चैत्र दद-११ (भूतल पे) ६:५० मिनिट सायंकाल , नित्यलीला – कृष्णलीलामें सदा बिराजमान
चरित्र : श्रीवल्लभाचार्यजी रसस्वरूप अजन्मा दैवीजीजोवोके स्वस्वरूपरसदानार्थ श्रीकृष्णके निर्गुण रसस्वरूप प्राकट्य है। आपश्रीने वेद-गीता-उपनिषद-महाभारत-रामायण-आगमशास्त्रों का गूढ़ अर्थ भक्तिस्नेहपूर्ण- साकरब्रह्मदाद स्थापित कर कलियुगमें मुक्ति या श्रेष्ठभक्तिके दाता है। आचार्यचरणकी अभेदभावसे भजनेठालोका साक्षात “वस्तुतः कृष्ण एव” है ऐसा प्रमेप दान किया। कलियुगमें कुष्णने स्वयं श्रीमदभागवतमें आज्ञाकी जो मेरी श्रेष्ठ भक्ति प्राप्त करना चाहेगा, मै आचार्य स्वरुप प्रकट होकर, मेरी प्राप्तिका मार्ग, बिना किसी भेदके प्रकट करूंगा। इसलिए, कलियुगके जीवो गुप्तरूपसे प्रकट आचार्यसे मंत्रदीक्षा-उपदेश ग्रहण-कर,आज्ञासे लौकिक-वैदिक-अलौकिक कर, उनको प्रसन्न रखकर ही श्रीकृष्णको प्राप्त कर सकता है। सीधी श्रीकृष्णकी प्राप्ति श्रीकृष्णकों भी मान्य नहीं है। प्रेमसे जाननेवाले, उन्हें कृष्णरूष जानकर शरण भक्ति करेगा ही। उसीके लिए वंश और सम्प्रदाय वहन किया है। यह ८४ वैष्णवकी वार्तासे जान ले। दो सम्प्रदायका वहन किया (१) श्रीविष्णुस्वामी (२) श्रीवल्लभ। श्रीवल्लभाचार्यने सरस्वतकल्पके प्रभुको लीलाके व्रजस्थल गोकुलादि -गिरिराजलीलास्थल जगह – माहात्म्य प्रगट किये। श्रीनाथजी प्रगट किये (१५६७)
श्रीगोवर्धननाथजीका स्वरुप यानी सारस्वत्कल्पमें श्रीकृष्ण जब अन्नकूट महायाग व्रजभकतो द्वारा किया गया, तब श्रीकृष्ण स्वयं श्रीगोवर्धनपर्वतके भीतर पधारकर, उनका धर्मी रस स्वरुप गूढ़ रखकर, चतुर्व्यूह स्वरुप प्रकट कर, अन्नकूट की सामग्री अंगीकार की। बहार जो एक उर्ध्वभुजा कर कटी पर दूसरा श्रीहस्त रखकरजो व्रजभक्तोको बुलानेवाले भी वही है। जो गुप्त रस स्वरुप होकर पर्वतमें है वह रसात्मक युगल लीलाके अधिकारीके लिए उनका स्वरुप प्रकट है। अन्य जीवोके लिए वह देवता धर्म स्वरुप है। जो जगत उद्धारक है।
श्रीगिरिराज श्रीवल्लभका हृदय है। जिसमे कुञ्ञकी लीलाको श्रीवल्लभने श्रीकृष्ण और स्वामिनीजीके हृदयमें स्त्रीभाव पुभाव रूप बिराजकर उद्बोध करते है। जिस जीवको वललभकी भक्ति हो, सेवक हो, उनका अंग हो, उसे हि इस लीलामें प्रवेश दान होता है। इसलिये जब श्रीवल्लभ भूतल पर प्रकट हुए तो प्रभु स्वामिनीजी का हृदय मानो निकुंज से भूतल पर खुदसे अलग हो गया। इसलिये भूतल पर श्रीजी, यमुनाजी, व्रजसृष्टि और गोवर्धनलीला श्रीवल्लभके लिए प्रकट हुए। और श्रीवल्लभका प्राकट्य दैवी निज सृष्टिके लिये। उनके लिए श्रीजी नहीं वल्लभ (दाता) जब (भक्त जीव)वल्लभकी भक्तिवाले जीवको दान (श्रीगोवर्धननाथजी) करे तो मिले। ८४वार्ता देखे। गूढ़ भाव जाने।
प्राकट्य : व्रज: कार्तिक सूद १२ गुर्जर: कार्तिक सूद १२
चरित्र: श्रीविट्ठलनाथजीके पांचवे आत्मज है। वह धर्मी स्वरुपके प्राकट्य है। जैसे तामसफल प्रकरणमें ऐश्वर्य- वीर्य -यश- श्री धर्मि – वेराग्य-ज्ञान ऐसा क्रम है, जिसमे वह धर्मी स्वरुपके क्रममें आते है। और सामान्य क्रमसे ज्ञान गुण, जो अज्ञान लौकिकको दूर कर भक्तिका बीज रढ़ कर लौकिक पर विजय करवाते है। आपश्रीको पूर्ण ज्ञान श्रीमहाप्रभुजीने साक्षात् प्रकट होकर अपना श्रीहस्त उनके मस्तक पर रखकर चर्वित ताम्बुल देकर रस दान कियीा। श्रीगुंसाईजीकी आज्ञासे तुलसीदासको श्रीराम और श्रीसीताके रुप में दर्शन दिये। आपश्री श्रीविट्ठलनाथजीके रसात्मक और नामात्मक स्वरुप प्रकट. करने वाले “श्रीनामरल्राख्यस्तोत्र” “श्रीविट्ललेशस्तवः” भी. प्रकट. किया। आपश्रीने श्रीपुरुषोत्तमसहस्ननाम पर नामचंद्रिका टीका, श्री सर्वोत्तिमस्तोत्र पर विवृति, षोडशग्रन्थ, मधुराष्टरक विवरण, भक्तितरंगिणी, भक्तिहेतु निर्णय पर व्याख्या, यमुनाष्टपदी, यमुनाष्टक इत्यादि अनेक स्तोत्र अष्टक प्रकट किये। रासस्वरूप श्रीगोकुलचंद्रमाजी सामनेसे इनके माथे पधारे। आपश्री अपने नेत्र श्रीविट्टलनाथजीके दर्शन करके ही खोलते।
प्राकट्य : ब्रज: मार्गशीर्ष सुद ७ गुर्जर: मागसर सुद ७
चरित्र: आपश्रीके बाल्यावस्थाके प्रथम ८ वर्ष श्रीवि्ठलेशप्रभ्चरणके सानिध्यमें लालित – पालित – पोषित हुए। श्रीविद्वलेशप्रभचरण श्रीदेवकीनन्दनजीके मुखारविंद और श्रीमस्तक पर अपने श्रीहस्तसे सहलाते हुए अष्टाक्षर मन्त्रका उच्चारण करते रहते। क्योंकि श्रीरघुनाथजी(छोटे) जिन्होंने श्रीदेवकीनन्दनजी (बड़े।के १०८ नामो के रसात्मक स्वरुप को “श्रीनामचिंतामणिस्तोत्रम”से प्रकट किया उस स्तोत्रमें श्रीदेवकीनन्दनजीका नाम है:- “श्रीवि्चलेशकरांभोजसंलालितमुखाम्बुज” यानिकी श्रीदेवकीनन्दनजीका मुखारविंद श्रीविद्ठलनाथजोके करकमलोसे लालित है। आपश्रीने अनेक शास्त्र, वेदादि स्वमार्गीयग्रन्थका गहन – गूढ़ भावके साथ हृदयारुढ़ कर अनेक स्वमार्गाय ग्रन्थ प्रकट किये। षोडशग्रंथोमें श्रीयमुनाष्क, बालबोध् सेवाफल, श्रीनामरल्राख्यस्त्रोत्रम् जैसे ग्रंथोपर व्याख्या और श्रीप्रभुचरित्रचिंतामणि, र॒साब्थिकाव्य प्रकट किया। माला – तिलकरक्षामें श्रीगोकुलनाथजी जब काश्मीर पधारे तब आपश्नी स्वयं काश्मीर श्रीगोकुलनाथजी संग विजय तक साथ रहे।
प्राकट्य : व्रज: श्रावण वद ११ गुर्जर:- अषाढ़ वद ११
चरित्र: श्रीदेवकीनन्दनजी (बड़े)के घर भगवतपुत्र स्वरूप श्रीरघुनाथजी (छोटे)का प्राकट्य श्रावण वद ११ वि.सं. १६६० हुआ। उनका प्राकट्य पञ्जमलालजी श्रीरघुनाथजीकी सदेहलीला बाद तुरंत होनेसे उन्हें उनका पुनः प्राकट्य माना गया । आपश्री अपने पूर्वजोके ही भाँति वैष्णव आचार – विचार -सिद्धांत – रीत- उपदेश, सभी तरहसे पूर्ण है। आपश्री विद्वान – स्वमार्गीय ग्रंथोके साथ वेदादि समस्त शास्त्रोंका गहन ज्ञान था। आपश्री सेवापरायण आचार्य है। आपकश्रीके पिताश्री श्रीदेवकीनन्दनजी (बड़े)के रसात्मक – नामात्मक स्वरूप प्रकट हो ऐसे १०८ नामका “नामचिंतामणिस्तोत्रम” प्रकट किया। उसके इतर अनेक अन्य स्तोत्र-टीका भी प्रकट की। आपकश्रीके एकमात्र भगवतपुत्र श्रीदेवकीनन्दनजी (छोटे) प्रकट हुए। आपके अनुज श्रीलक्ष्मणजीको एक भगवततपुत्र श्रीचिमनजी(१७००) प्रकट हुए। आपके दुसरे अनुज श्रीवल्लभजीको तीन भगवतपुत्र प्रकट हुए। (१)श्रीगोकुलनाथजी (२)श्रीविट्नलेशजी
प्राकट्य : व्रज: श्रावण सुद १५ गुर्जर: श्रावण सुद १५ !
चरित्र: श्रीरघुनाथजी(छोटे)के घर श्रीदेवकीनन्दनजी प्रकट हुए। आपश्रीने अपनी अवतारलीला जल्दी समेटकर अपने दैवी जीवोको लेकर पधारे। इसलिए फिर श्रीरघुनाथजी (छोटे)के अनुज श्रीवल्लभजीके तीन पुत्रोमेंसे द्वितीय पुत्र श्रीविट्न लेशजी पधारे।
प्राकट्य : ब्रज: भाद्रपद कृष्ण १३ गुर्जर: श्रावण वद१३
चरित्र: आपश्री श्रीरघुनाथजी(छोटे)के भतीजे है। आपश्री श्रीवल्लभजी श्रीरघुनाथजी(छोटे) के अनुजके द्वितीयपुत्र है। आपकश्री पूर्वजोके भाँति विद्वान-स्वमार्ग-भगवत्सेठा परायण रहे।आपश्रीक घर दो भगवतृ्पुत्रोका प्राकटय हुआ (१)श्रीगिरधरजी (१७२५ द वि.सं.) (२)अनुज श्री वल्लभजी (१७२९ वि.सं.)
प्राकट्य : ब्रज: आषाढ़ सुद ३ गुर्जर : आषाढ़ सुद ३
चरित्र :- श्री विट्ठलेशजीके घर वि.सं. १७२५ गोकुलमें आषाढ़ सुद ३ को प्राकट्य हुआ। आपश्री सदा सेवापरायण – जप -पाठ -यज्ञादि नित्य करते। आपश्रीका हृदय अपने निजसेवकोके लिये सदा करुणामय -उदारशील -भावुक रहता है। आपका एक भक्त उस समय प्रभुको स्वयंके घर पधराने दीनभावनासे सदा रुदन करता रहता। श्रीगोकुलचन्द्रमाजी स्वरुप “भक्तमनोरथपूरकाय नमः” नाम अनुसार उस भक्तका मनोरथ पूर्ण करने श्रीगोकुलचन्द्रमाजी प्रभू अन्तर्ध्यान हुए। श्रीगिरधरजीने स्वस्वरुपअन्तर्ध्यान होते, अन्नजल त्याग कर दिया। व्रजमें सूध भूलकर विचरण करने लगे। श्रीगिरधजीका विरह श्रीगोकुलचन्द्रमाजीको सहन न हुआ और पुनः माथे पधारे | आपश्रीको देहाभिमान नहीं था | आपश्री के घर दो भंगवत्पुत्र प्रकट हुए।
(१) श्री द्वारकेशजी (१७५१) (२) श्री विट्ठलेशजी (१७५३)
प्राकट्य : ब्रज: चेत्र सुद २गुर्जर: चेत्र सुद २
चरित्र :-श्री गिरधरजीके घर वि.सं. १७५१ चैत्र सुद २ (गणगौर)के दिन श्रीद्वारकेशजीका प्राकट्य हुआ। आपश्री बाल्यकालसे हीं काव्यरचना करते है। आपश्रीने सर्ववेदादि शास्त्रोके उपरांत स्वमार्गीय ग्रन्थोंका अध्ययन किया | आपश्री स्रेह भाव हृदयी है। आपपश्री सदा सेवापरायण – भक्तमनोरथ पूर्ण करनेवाले, सदा सेवकोके पथदर्शक-कामनापूरक है। आपश्री श्रीवल्लभाचार्य उपदिष्ट गूढ़ भावना – श्रीप्रभुचरण श्रीगोपीनाथजी वर्णित गूढ़ भावनाकी परंपरासे खुदभी सेवा – लीलामें मग्न रहते है। आपश्रीने निजभक्तोके उद्धारार्थ वही रत्र भावोको व्रजभाषाके कीर्तन -पदोंमे असंख्य रचना की। आपश्रीने “भावभावना ” ग्रन्थ प्रकट किया। जो आजभी सम्प्रदायमें उपकारक हो रहा है। श्रीवल्लभके चरित्र को “मूलपुरुष” ग्रन्थरुप प्रकट किया, जिसका नित्य पाठ वैष्णव करते है। आपश्री संगीतज्ञ है, कई वाद्य -गायन कलामें निपुण है। आपश्री ने कुछ षोडशग्रन्थ पर टीका भी प्रकट की है। आपश्रीको ६ भंगवत्पुत्रो का प्राकट्य हुआ।
प्राकट्य : ब्रज: पोष शुक्लपक्ष ११ गुर्जर: पोष सुद – ११
चरित्र: आपश्री के पितृचरण श्रीट्वारकेशजीके ६ भगवत्पुत्र प्रगट हुए
(१) श्रीरघुनाथजी (वि. सं. १७७६)
(२) श्रीगिरधरजी (वि. सं. १७७९)
(३) श्रीगोविंदजी (वि. सं. १७८२)
(४) श्रीबालकृष्णजी (वि.सं.१७८५)
(५) श्रीगोकुलनाथजी (वि. सं, १७८७)
(8) श्री यदुनाधजी (वि. सं. १७९२)
आपश्रीके माथे पितृचरण की परंपरा पधारी। आप उन्हींकी तरह सेवापरायण – आचरण निष्ठ- भक्तहितकारी सम्प्रदाय प्रवर्तनमें सहायक आचार्य है। आपश्रीके घरमें दो भगवत्पुत्रोंका प्राकट्य हुआ।
(१) श्रीदेवकीनन्दनजी (चारभूजावारे) (वि. सं. १७९९)
(२) श्रीरोहिणीनन्दनजी (वि. सं. १८०५)
प्राकट्य : ब्रज: महा शुक्लपक्ष १० गुर्जर: महा सुद – १०
चरित्र : श्रीगिरधजीके गृह आप प्रकट हुए। आपके प्राकट्यसे ही आपश्रीके श्रीअंग पर चार श्रीहस्त बिराजमान थे। आपका प्राकव्य श्रीवासुदेवका अवतार था। इसलिए आपको “चतुर्भूज “ भक्तों द्वारा संबोधन हुआ। आपश्री सर्ववेदादिशास्त्र – स्वमार्गीय ग्रन्थके गुढज्ञाता है! आपश्रीके अलौकिक प्रतापसे उस समयके जयपुरके राजा माघोसिंहकी सदा जयपुर पधारनेकी बिनंती आपने स्वीकार कर ली। वि. सं. १८२२ में आपश्री चन्दबावा सहित जयपुर पधारे। आपश्री एकबार बाँधनी पधारे। वहाँ तालाब पार कर जाना पड़ता है! कुछ वहाँके मस्करोने तालाबके उपरसे चलकर सामने गाँव पप्रे हु तो हम जाने। यह सुनकर आपकश्रीने सेवकोको रास्तेसे सममने भेजकर स्वयं तालाबके ऊपर पानी पर चलकर गाँव पधारे माँवमें हवाकी तरह बात फैली और सब आपके सेवक हुए। आपश्रीके बहूजी श्रीजमुनाजी सदा सेवापरायण हतेजिसके फलस्वरुप श्रीचन्दबावाने उनका हाथ पकड़ा और लीलादान की। आपश्रीके सा पुत्ररत्न प्रकट न हुए।
प्राकत्थ : व्रज: महा सुद १४ गुर्जर : महा सुद – १४,
चरित्र : आप पंचमगृह भ्रीदेवकीनन्दनजीके गृह वि. सं १८९० गोदपधारे। आपश्री सर्ववेदादि शास्त्रो – स्वमार्गीय ग्रन्थोंके ज्ञाता है। आयश्री शस्त्रविद्यामें निपुण है। कामा पंचमगृहमें विजयादशमीके दिन आयश्रीके शस्त्रोका पूजन अबभी प्रतिवर्ष होता है। आपश्रीको सदा सेवापरायण और श्रीचन्दबावाकी मानसीका फल दान हुआ। आयश्रीको श्रीचन्दबावा छोड़कर कहीं जाना रुचता नहीं, ऐसा स्वमाथे प्रभुमें स्रेह था। बहलाफुसलाकर अज्ञानतासे श्रीगोवर्धननाधथजीकी सेवामें तिकेतके सेवक उन्हें ले गए। मंगलामें पधारे तब उन्हें तो श्रीचन्दबावाके स्वरुपका ही ध्यान था। श्रृंगारभी उसी भाँति किए। जब वेणु धराने का समय हुआ, तो श्रीजीको श्रीचन्दबावाकी भांति धराने लगे। वेणु गिर जाती, इसलिए अश्रुधारा ऐसी बहीकी प्रभुका सिंहासन भीग गया। विरहातुर उन्हें देख परंकरुणावान श्रीजीने अपने दो श्रीहस्त जो कटि और उर्ध्वपे था, वह श्रीगोकुलचन्द्रमाजी समान वेणु धारणकर श्रीजीने श्रीगोकुलचन्द्रमाजी स्वरुप दर्शन दिए। ऐसे श्रीवल्लभजीके बचनामृत – अनेक पद – कीर्तन आज भी इस घर में गाय जाते है। आपने सुबोधिनी पर, भाष्य पर विवृत्ति भी की है।
प्राकट्य : ब्रज: अषाढ सुद ७ गुर्जर: अषाढ सुद ७
चरित्र: श्रीवल्लभजीके घर चार भगवत्पुत्र प्रकट हुए। उनमे द्वितीय पुत्र श्रीगोविन्दजीके माधे श्रीचन्दबावा पधारे| आयका आचरणपूर्ण सेवामयजीवन और समस्त निजसेवको – सृष्टिके प्रति स्रेहयूर्ण होनेसे आपको “श्रीगोविन्दप्रभु”के नामसे संबोधित करते। उस समय जयपुर नरेश रामसिंहजीने शैवमार्गी सन्यासीके संगसे बहकावेमें वैष्णवधर्म – प्रति द्वेषभाव था। श्रीलक्ष्मणनाथगिरि सन्यारीने राजाके निर्दोष हृदय का लाभ लेकर पंडित हरिश् चन्द्रसे मिल ६४ प्रश्न तैयार किये। शास्त्रार्थाा आमन्त्रण हुआ। श्रीगोविन्दप्रभुने शास्त्रार्थ स्वीकार कर प्रज्ञाचक्षु भारतमार्तंड श्रीगटटूलालाजीसे “सल्लिद्धान्तमार्तंड“ ग्रन्य किया। शहर शहर शास्त्र्थमें पराजय की। पुनः पुष्टिमार्ग रक्षण किया| जयपुर नरेशके क्रोध को जानकार जब नरेश ने या तो संपत्ति छोडकर प्रभुको ले जाए या शैवमार्गी हो जाय, यह विकल्प रखा। तब “श्रीगोविन्दप्रभु ने २००००००० सोनामहोर निजी सम्पत्ति छोड भगवत स्वरुप सेवाके लिए “जयपुर ज्वलन्त त्याग” किया। पुष्टिमार्गमें यह श्रीवल्लभका अशेष सामर्थ्य बंश द्वारा उदाहरणार्थ प्रकट किया। सेवकोको कृति कर उपदेश दिया। धन-यश-लौकिक सगेभी सेवामें प्रतिबन्धक हो तो त्याज्य है।
प्राकट्य : व्रज चैत्र शुक्लपक्ष २ गुर्जर : चैत्र सुद २
चरित्र : आपश्रीके पितृचरण जब बीकानेर प्रभु सहित पधारे। तब पंचम- सप्तमगृहकी निधि सहित पुनः व्रजमें पधारनेकी इच्छा बिकनेरके राजसारदारसिंहको व्यक्त कर गोविन्दप्रभु वि. सं. १९२९ महा सूद १३ को कामा पधारे। तब श्रीदेवकीनन्दनजी उनके श्रीगोपाललालजी और श्रीजयदेवलालजी सहित पधारे। आपश्रीका अभ्यास पं. कन्हैयालालसे हुआ। समस्त वेद, पुराण, स्मृति , स्वमार्गीय ग्रन्थ, षटशास्त्रो के सर्वज्ञ विद्वान है। ब्रह्ममुहतमें जगकर भगवदसेवा फिर “अग्निहोत्र यज्ञ-जप-पाठ -परायण-कर अनवसरमें उस समयके अराजकता, पुष्टि विरोधी-आचार्य-सम्प्रदाय विरोधी षडयंत्रकारी म्लेच्छ अंग्रेज, उनके लोलुप भारतीय विद्वानोको शास्त्रार्थमें परास्त कर, वैदिक-पुष्टिधर्मकी रक्षा की उस समयके भारतरत्र पं. मदनमोहनमालवीय उन्हें बनारसमें सर्वोच्च सिंहासन पर पधराकर, उनका निर्णय सभामें मान्य रखते थे। उनके अलावा लोकमान्यतिलक, जैनाचार्य धर्मविजयसूरी, श्र पं विष्णुराम आपश्रीका मत सर्वमान्य करते थे। आपश्री ने उस समय पुष्टिमार्गीय ग्रन्थो का प्रकाशन स्वचरण भेंट से शुरु किया। पंजाब में अग्निकुलका परिचय देकर आर्यसमाजीको चूप किया। हैदराबादके निजाम उनके प्रशंसक हो गये।
प्राकट्य : ब्रज: अषाढ़ सुद ३ गुर्जर: अषाढ़ सुद ३
चरित्र: आपश्री बाल्यकालसे ही अदभुत प्रतिभावान थे। तानजोर (तमिलनाडु)में रायनल्लुर बिराजे। गाँवमें ग्रामवासियाँ स्वरुपरसपान करने मार्ग में खड़ी रहती। ६ वर्ष की आयुर्मं कामा पथारकर पंडितोसे सर्ववेदादिशास्त्रोंका अध्ययन किया। आपका यज्ञोपवित विसं. १९५६ में हुआ। आपकश्रीने सेवापरायणता संध्या – अग्निहोत्रकी परंपराका वहन किया। आयश्री पञ्चमगृहके साथ श्रीचन्द्रावलीजीमाजीमहाराजके आग्रह से गोकुल गोद पधारे। आपश्रीका “वल्लभकोश”में चरणभेट संग्रह होता था, जिससे आपश्रीके माथे बिराजमान चतुर्थ – पद्चमगृहका वहन होता था। अनेक स्थानों पर बडयंत्रकारी – विद्वेषी – असंगंत तर्कवादियोंको पराजित करते थे। आपश्रीने “वैष्णवर्धर्मफताका” नाम पर एक गुजराती तथा हिंदी पत्रिका शुरू की। स्वयंने श्रीदेवकीनन्दन पाठशाला – ग्रंथालय स्थापित कर, कामवन विध्याविभाग स्थापित कर नाम सेवा की। जिसमे दुर्लभ आचार्यचरणों के ग्रन्थ प्रकाशित हुए। आपश्रीने सजातीय भेदकों दूर किया। तिलकायतके जटिल समस्याओंका समाधान किया लौकिक है समाजके कुधर्मसे सेवकोको बचाया | दैवीजीवोको भक्ति दान की। स्वदेशी आहार-पोशाक- भाषा संस्कार का प्रचार – प्रसार – स्थापन किया। श्रीमद्भधागवत समस्त कंठस्थ की। आपक्री द्वारा उस दुर्गम समयमेंभी अणुभाष्य, विदृवन्मण्डन और जाति-रीति दर्पण ग्रन्थ प्रगट हुए। आपश्रीके तीन आत्मज प्रगट हुए, जो दुर्लभ चित्र २ में है। ज्येष्ठ श्रीगोविदरायजी मध्यमे, चित्रमें बायीं ओर द्वितीय आत्मज श्रीगोकुलनाथजी और दायीं ओर श्रीचंद्रगोपालजी बिराजे हुए है
प्राकट्य : ब्रज: आसौ वद १४ गुर्जर: आसौ वद १४
चरित्र: आपश्री चतुर्थ-पदञ्चम गृहाधीश्वर नि.ली.श्रीवललभलालजी महाराजश्रीके तृतीयपुत्र है। प्राकट्यूके केवल ६ माह के कालमें माताश्रीने लीला प्रवेश किया। तब मुंबईसे भरतपुर, जब आप बाई संग पधारे, उन्हें लेने आपश्रीके पितृचरण श्रीवल्लभलालजी स्टेशन पधारे, जहाँ अपने तृतीयपुत्र को देखकर नेत्रोंमें हर्षाश्रुसे दौड़कर अपने गोदमें लेकर, अपने माथे पर बिठा कर वहाँ से कामा पधारे। पितृचरणकी अवतारलीला अनायास सिमलनेसे श्रीगोविन्दलालजी (ज्येष्ठभ्नाता)से ललायित-पोषित हुए. आपश्रीका स्वरुप कोटिकन्दर्पलावण्यमय युक्त था। जो साक्षात् श्रीवललभ-प्रभुचरण का साक्षातकार करा देता है। “सर्वत्यागोपदेशक:”के नाम की लीला की। आपश्रीने सर्व लोक-धन-गृहमें आसक्ति त्यागकर भगवत् सेवामय- स्मरण करते हुए लीला की। सम्प्रदायके सेवकोको श्रीवल्लभके प्रवर्तितपथ पर आचरण कर उपदेश और प्रचार का क्रियात्मक स्वरुप आज के समयमें वललभ अंशत्व- बतलाया। आपश्रीके ३ आत्मज है। आपश्रीने पञ्ममगृह-२ कामा-विरमगामके घरको शोभायमान किया। आपके माथे श्रीअष्टभुजाजी, श्रीरसिकप्रियाजी-श्रीवृन्दावनचन्द्रजी पधारे।
श्रीगोवर्धननाथजीका स्वरुप यानी सारस्वत्कल्पमें श्रीकृष्ण जब अन्नकूट महायाग व्रजभकतो द्वारा किया गया, तब श्रीकृष्ण स्वयं श्रीगोवर्धनपर्वतके भीतर पधारकर, उनका धर्मी रस स्वरुप गूढ़ रखकर, चतुर्व्यूह स्वरुप प्रकट कर, अन्नकूट की सामग्री अंगीकार की। बहार जो एक उर्ध्वभुजा कर कटी पर दूसरा श्रीहस्त रखकरजो व्रजभक्तोको बुलानेवाले भी वही है। जो गुप्त रस स्वरुप होकर पर्वतमें है वह रसात्मक युगल लीलाके अधिकारीके लिए उनका स्वरुप प्रकट है। अन्य जीवोके लिए वह देवता धर्म स्वरुप है। जो जगत उद्धारक है।
श्रीगिरिराज श्रीवल्लभका हृदय है। जिसमे कुञ्ञकी लीलाको श्रीवल्लभने श्रीकृष्ण और स्वामिनीजीके हृदयमें स्त्रीभाव पुभाव रूप बिराजकर उद्बोध करते है। जिस जीवको वललभकी भक्ति हो, सेवक हो, उनका अंग हो, उसे हि इस लीलामें प्रवेश दान होता है। इसलिये जब श्रीवल्लभ भूतल पर प्रकट हुए तो प्रभु स्वामिनीजी का हृदय मानो निकुंज से भूतल पर खुदसे अलग हो गया। इसलिये भूतल पर श्रीजी, यमुनाजी, व्रजसृष्टि और गोवर्धनलीला श्रीवल्लभके लिए प्रकट हुए। और श्रीवल्लभका प्राकट्य दैवी निज सृष्टिके लिये। उनके लिए श्रीजी नहीं वल्लभ (दाता) जब (भक्त जीव)वल्लभकी भक्तिवाले जीवको दान (श्रीगोवर्धननाथजी) करे तो मिले। ८४वार्ता देखे। गूढ़ भाव जाने।
श्रीगोवर्धननाथजीका स्वरुप यानी सारस्वत्कल्पमें श्रीकृष्ण जब अन्नकूट महायाग व्रजभकतो द्वारा किया गया, तब श्रीकृष्ण स्वयं श्रीगोवर्धनपर्वतके भीतर पधारकर, उनका धर्मी रस स्वरुप गूढ़ रखकर, चतुर्व्यूह स्वरुप प्रकट कर, अन्नकूट की सामग्री अंगीकार की। बहार जो एक उर्ध्वभुजा कर कटी पर दूसरा श्रीहस्त रखकरजो व्रजभक्तोको बुलानेवाले भी वही है। जो गुप्त रस स्वरुप होकर पर्वतमें है वह रसात्मक युगल लीलाके अधिकारीके लिए उनका स्वरुप प्रकट है। अन्य जीवोके लिए वह देवता धर्म स्वरुप है। जो जगत उद्धारक है।
श्रीगिरिराज श्रीवल्लभका हृदय है। जिसमे कुञ्ञकी लीलाको श्रीवल्लभने श्रीकृष्ण और स्वामिनीजीके हृदयमें स्त्रीभाव पुभाव रूप बिराजकर उद्बोध करते है। जिस जीवको वललभकी भक्ति हो, सेवक हो, उनका अंग हो, उसे हि इस लीलामें प्रवेश दान होता है। इसलिये जब श्रीवल्लभ भूतल पर प्रकट हुए तो प्रभु स्वामिनीजी का हृदय मानो निकुंज से भूतल पर खुदसे अलग हो गया। इसलिये भूतल पर श्रीजी, यमुनाजी, व्रजसृष्टि और गोवर्धनलीला श्रीवल्लभके लिए प्रकट हुए। और श्रीवल्लभका प्राकट्य दैवी निज सृष्टिके लिये। उनके लिए श्रीजी नहीं वल्लभ (दाता) जब (भक्त जीव)वल्लभकी भक्तिवाले जीवको दान (श्रीगोवर्धननाथजी) करे तो मिले। ८४वार्ता देखे। गूढ़ भाव जाने।
श्रीगोवर्धननाथजीका स्वरुप यानी सारस्वत्कल्पमें श्रीकृष्ण जब अन्नकूट महायाग व्रजभकतो द्वारा किया गया, तब श्रीकृष्ण स्वयं श्रीगोवर्धनपर्वतके भीतर पधारकर, उनका धर्मी रस स्वरुप गूढ़ रखकर, चतुर्व्यूह स्वरुप प्रकट कर, अन्नकूट की सामग्री अंगीकार की। बहार जो एक उर्ध्वभुजा कर कटी पर दूसरा श्रीहस्त रखकरजो व्रजभक्तोको बुलानेवाले भी वही है। जो गुप्त रस स्वरुप होकर पर्वतमें है वह रसात्मक युगल लीलाके अधिकारीके लिए उनका स्वरुप प्रकट है। अन्य जीवोके लिए वह देवता धर्म स्वरुप है। जो जगत उद्धारक है।
श्रीगिरिराज श्रीवल्लभका हृदय है। जिसमे कुञ्ञकी लीलाको श्रीवल्लभने श्रीकृष्ण और स्वामिनीजीके हृदयमें स्त्रीभाव पुभाव रूप बिराजकर उद्बोध करते है। जिस जीवको वललभकी भक्ति हो, सेवक हो, उनका अंग हो, उसे हि इस लीलामें प्रवेश दान होता है। इसलिये जब श्रीवल्लभ भूतल पर प्रकट हुए तो प्रभु स्वामिनीजी का हृदय मानो निकुंज से भूतल पर खुदसे अलग हो गया। इसलिये भूतल पर श्रीजी, यमुनाजी, व्रजसृष्टि और गोवर्धनलीला श्रीवल्लभके लिए प्रकट हुए। और श्रीवल्लभका प्राकट्य दैवी निज सृष्टिके लिये। उनके लिए श्रीजी नहीं वल्लभ (दाता) जब (भक्त जीव)वल्लभकी भक्तिवाले जीवको दान (श्रीगोवर्धननाथजी) करे तो मिले। ८४वार्ता देखे। गूढ़ भाव जाने।
श्रीगोवर्धननाथजीका स्वरुप यानी सारस्वत्कल्पमें श्रीकृष्ण जब अन्नकूट महायाग व्रजभकतो द्वारा किया गया, तब श्रीकृष्ण स्वयं श्रीगोवर्धनपर्वतके भीतर पधारकर, उनका धर्मी रस स्वरुप गूढ़ रखकर, चतुर्व्यूह स्वरुप प्रकट कर, अन्नकूट की सामग्री अंगीकार की। बहार जो एक उर्ध्वभुजा कर कटी पर दूसरा श्रीहस्त रखकरजो व्रजभक्तोको बुलानेवाले भी वही है। जो गुप्त रस स्वरुप होकर पर्वतमें है वह रसात्मक युगल लीलाके अधिकारीके लिए उनका स्वरुप प्रकट है। अन्य जीवोके लिए वह देवता धर्म स्वरुप है। जो जगत उद्धारक है।
श्रीगिरिराज श्रीवल्लभका हृदय है। जिसमे कुञ्ञकी लीलाको श्रीवल्लभने श्रीकृष्ण और स्वामिनीजीके हृदयमें स्त्रीभाव पुभाव रूप बिराजकर उद्बोध करते है। जिस जीवको वललभकी भक्ति हो, सेवक हो, उनका अंग हो, उसे हि इस लीलामें प्रवेश दान होता है। इसलिये जब श्रीवल्लभ भूतल पर प्रकट हुए तो प्रभु स्वामिनीजी का हृदय मानो निकुंज से भूतल पर खुदसे अलग हो गया। इसलिये भूतल पर श्रीजी, यमुनाजी, व्रजसृष्टि और गोवर्धनलीला श्रीवल्लभके लिए प्रकट हुए। और श्रीवल्लभका प्राकट्य दैवी निज सृष्टिके लिये। उनके लिए श्रीजी नहीं वल्लभ (दाता) जब (भक्त जीव)वल्लभकी भक्तिवाले जीवको दान (श्रीगोवर्धननाथजी) करे तो मिले। ८४वार्ता देखे। गूढ़ भाव जाने।